भाजपा अब चुनावों में मुख्यतः साम्प्रदायिक व भावनात्मक मुद्दों व राष्ट्रवाद पर केंद्रित होकर चुनाव क्यों लड़ती हैं? क्या भूख,रोजगार, महंगाई व भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा हिंदुत्व या राष्ट्रवाद है?

भाजपा ने 2014 चुनाव वास्तविक मुद्दों पर लड़ा था। सबका साथ सबका विकास, भ्रष्टाचार का खात्मा, विदेशों से काले धन की वापसी,सबके खाते में 15-15 लाख, हर वर्ष करोड़ों नौकरियां इत्यादि वादों के साथ मोदी की भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने सत्ता के जादुई आंकड़े को पार कर लिया।

वो यह जानते थे कि इन वादों को पूरा करना मुमकिन नहीं है। उन्होंने धीरे धीरे इन मुद्दों से किनारा करना शुरू किया और भाजपा संघ के असली मुद्दे यानि हिंदुत्व के मुद्दे पर आ गयी।उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि वर्षों की गुलामी झेल चुके भारतीय मतदाताओं के दिल जीतने और चुनाव लड़ने और जीतने का आसान व कारगर उपाय है।

 दुनियां की पूंजीवादी व्यवस्था मंदी झेल रही है इसलिये विकास की दर धीमी है, बेरोजगारी अपने चरम पर है।भूख,बेरोजगारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने के खतरे बहुत हैं और यदि जीत भी गए तो उपरोक्त समस्याओं का कोई अल्पकालिक समाधान नहीं है। ऐसा नहीं की भाजपा ने उपरोक्त चारों मुद्दों को ही आधार बनाकर 2014 के चुनाव में उतरी और जीत हासिल की।उन्होंने सत्ता में आते ही सबसे पहले संसद की सीढ़ियां चूमी थी फिर एक एक करके कई अवसर आये जिसमें साम्प्रदायिकता का जहर आसानी से फैलाया जा सके।कहीं गौ रक्षा के नाम पर ,कहीं बीफ के नाम पर देश भर में लोगों की हत्याएं हुई और जब इन हत्याओं के विरोध में बुद्धिजीवी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आवाज उठाई तो तथाकथित टुकड़े टुकड़े गैंग बता कर अलग थलग कर दिया। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने ,भाजपा के अन्य नेताओं ने 15 लाख देने का वादे को जुमला बताकर यह संकेत दे दिया कि सब जुमलों की ही राजनोति होगी।अनेक घटनाओ खासकर कश्मीर की आतंकवादी वारदात का हवाला देकर ,सहारनपुर की घटना, पालघर में हुए साधुओं की मोबलीनचिंग इत्यादि घटनाओं को सांप्रदायिक रंग दिया गया।उत्तरपदेश के चुनाव के पहले पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले का खुलासा पूरी तरह से होना अभी भी बाकी है परन्तु सर्जिकल स्ट्राइक को गोदी मीडिया ने खूब प्रसारित किया और उत्तरपदेश में भी सरकार बनाने में कामयाब रही। इस तरह भाजपा के लिये विकास का मतलब है भाजपा की सत्ता का विस्तार और देशभक्ति का मतलब भाजपा या मोदी भक्ति।संघ अपने मातहत संगठनों के माध्यम से जनमानस में यह भय बिठाने में सफल रहा।अब तो राम मंदिर बनने की प्रक्रिया आरम्भ है तो कुल मिलाकर भावनात्मक और राष्ट्रवाद के मुद्दो पर चुनाव लड़ना ज्यादा आसान है।भजपा ने गम्भीर मुद्दों पर चुनाव लड़ने वाली अटल जी के भारत उदय अभियान का हश्र देख ही चुकी थी। वैसे यह भारत के लिये कोई नया नहीं है क्योंकि भारत में जातीय,भाषाई समीकरणों के आधार पर ही चुनाव लड़े और जीते जाते रहे हैं।कांग्रेस पार्टी ने सवर्ण हिन्दू,दलित और अल्पसंख्यक समीकरण के बूते 30 वर्षों तक निर्बाध राज किया उसके बाद भी 1980 से 1990 तक इसी समीकरण के बूते वो दिल्ली पर राज करती रही। बाद में लोहियावादी पिछड़े नेताओं के उभार व मुस्लिमों के कांग्रेस से छिटक जाने से कांग्रेस की सत्ता कमजोर हुई।पिछड़े नेताओं के दलों से कांग्रेस के गठबंधन ने सवर्णों को फिर दलितों को कांग्रेस व लोहियावादी दलों से दूर कर दिया और वो भाजपा के खेमे से आ जुड़े।पिछड़ी दबंग जातियों के अपने अपने नेता और दल हो गए सो भाजपा को सत्ता पाने का एक ही नुस्खा दिखा वो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद था।भूख,बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से निराश और हताश जनता के लिये भाजपा के श्री राम के नारे ने प्रभावित किया और भाजपा सत्ता में आ गयी।कहा जाता है कि समस्याओं से ग्रस्त जनता के लिए धर्म अफीम की तरह काम करती है वही अभी भारतीय राजनीति और भाजपा के जीत की सच्चाई है।
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