भारत का मीडिया

भारत का मीडिया:
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां मीडिया को खबरें प्रसारित करने की स्वतंत्रता है।स्वतंत्रता इतनी है कि 2011 से 2014 के बोच देश की सभी मीडिया हाउस ने तत्कालीन UPA 2 सरकार व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।हालांकि सत्ता की आलोचना स्वतंत्र मीडिया का परम दायित्व है पर मीडिया का विपक्ष का भौपु बन जाना भी जायज नहीं है।दुर्भाग्य से 2013 के बाद 2014 के चुनाव के परिणाम आने तक मीडिया विपक्ष की भौंपू बनी रही।
2014 के आम चुनावों में मोदी की बड़ी जीत में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।भारत की मीडिया काफी हदतक निष्पक्ष व बेबाक मानी जाती थी।आज़ादी के बाद से लेकर सन 2014 तक अपनी बेबाक रिपोर्टिंग की वजह से मीडिया ने कई राजनेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें पूरे शिद्दत से छपी और सरकार को बेनकाब किया।इस मीडिया ने 1974 के बाद इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर प्रधानमंत्री के आपातकाल लगाने का विरोध किया ।एक समाचार पत्र ने अपने मुख्यपृष्ठ को को काला करके छापा तो दूसरे समाचार पत्र ने संपादकीय कॉलम  को ब्लेंक रखने का साहस किया।
आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी हैं। 2014 के आम चुनाव तक  मीडिया 2 G घोटाले, स्विस बैंक में जमा कालेधन,कोल घोटाला जैसे सनसनीखेज खबरों को दिखाकर कांग्रेस को भ्रष्टाचार की गंगोत्री साबित करने में सफल रही। बाबा रामदेव का आंदोलन हो या अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सभी को भरपूर फुटेज मिला। पर मोदी जी की बहुमत की सरकार बनते ही इस मीडिया के सुर बदल गए और सरकार की चापलूसी में लग गयी।मोदी व सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया चैनल व पत्रकारों को इन चापलूस मीडिया चैनलों ने बिकी हुई मीडिया,पत्तलकार, प्रेसस्टिट्यूट्स जैसे सम्बोधनों से विभूषित कर दिया।आज मीडिया पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है और सरकार की भौंपू बन चुकी है।जो थोड़ी बहुत आलोचनाएं इन चैनलों पर दिखाई देती हैं वो वास्तव में इन चैनलों के मालिक व देश के बड़े पूंजीवादी घरानों के बीच अंतर्द्वंद्व की वजह से दिख जाता है।
आज की मीडिया जमीनी खबरों,जन मुद्दों से बिल्कुल दूर हो चुकी है।देश के कुछ बड़े शहरों में मौजूद इनके पीवीआर वाहनों पर लगे एंटीना को छोड़ दें तो पूरे देश से इनके एंटीना गायब हो चुके हैं।इन चैनलों के एजेंडे,ब्रेकिंग न्यूज़ की लाइनें व बहस की स्क्रिप्ट सब इन मीडिया हाउस के दफ्तरों के वातानुकूलित कमरों में ही तय होते हैं।खबरें  सिर्फ टी आर पी बढ़ाने व विज्ञापन से रेवेन्यू कमाने का जरिया बन चुका है। मुद्दों को सनसनीखेज बनाने के लिए धर्मेंद्र के "कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा" और "एक एक को चुन चुन कर मारूंगा" टाइप डायलॉग बोलने वाले पत्रकारों की नई जमात मीडिया के स्टार बन चुके हैं। ऐसे लोकप्रिय एंकर पूछते कम हैं चिल्लाते ज्यादा हैं ये पैनल में बैठे उनकी बात काटने वालों को कब देशद्रोही कह दें इसका अंदाजा ही नहीं है।अभी मीडिया की स्थिति ऐसी हो गयी है कि आप एक्शन फिल्मों को देखने से बेहतर मजा इनके न्यूज़ देखकर ले सकते हैं।
इस स्थिति में सोशल मीडिया और इंटरनेट पत्रकारिता ने जनपक्षीय पत्रकारिता की लाज बचा रखी है।हालांकि धीरे धीरे इन माध्यमों पर भी बड़े मीडिया घरानों व सत्ता प्रयोजित पत्रकारों की दखल बढ़ रही है।दूसरी तरफ सोशल मीडिया के माध्यमों से सरकार की पोल खोलने की आज़ादी से घबराई सरकार जब तब सोशल मीडिया पर बंदिशें लगाने की जुगत भिड़ाती रहती है।
पत्रकारिता लोकतंत्र का प्रहरी है जब मेनस्ट्रीम मीडिया सरकार की गोद में बैठ जाये,सरकार कलम पर पहरा लगाने लगे तो समझिये के लोकतंत्र खतरे में है। इस खतरे का प्रतिरोध आवश्यक है  "जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो" की उक्ति को अपनाने की जरूरत है।

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