क्या मोदी सिर्फ इसलिए प्रधानमंत्री बने क्योंकि उनके विपक्ष में मजबूत नेताओं की कमी है? या वह स्वयं एक मजबूत नेता हैं?

क्या मोदी सिर्फ इसलिए प्रधानमंत्री बने क्योंकि उनके विपक्ष में मजबूत नेताओं की कमी है? या वह स्वयं एक मजबूत नेता हैं?

इस बात में कोई दो राय नहीं के नरेंद्र मोदी एक मजबूत नेता हैं परन्तु यह कहना भी सही नहीं कि विपक्ष में मजबूत नेताओं की कमी है।नरेंद्र मोदी एक कुशल नेतृत्वकर्ता, शातिर रणनीतिकार व अति महत्वाकांक्षी व दूरदर्शी नेता हैं। उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री का पद भी कई शातिराना राजनीतिक चालें चलकर हासिल की। यह कहा जाता के गोधरा कांड के पश्चात हुई गुजरात की हिंसा के पीछे भी एक सोची समझी रणनीति थी ताकि नरेंद्र मोदी खुद को गुजरात व गुजरात के बाहर सम्पूर्ण देश में एक कट्टरवादी हिन्दू नेता के रूप में स्थापित कर सकें। हुआ भी यही 2014 के लोकसभा चुनाव आने के पहले उन्होंने आर एस एस को साधा फिर भाजपा के तब के कद्दावर नेता और पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी को दरकिनार कर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए। उनकी ये सारी उपलब्धियां उनकी योग्यता व नेतृत्व क्षमता को तो साबित करती ही हैं।
अब विपक्ष की बात करें योग्यता व नेतृत्व क्षमता के हिसाब  विपक्ष में कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी से बेहतर हैं और भारत को कुशल नेतृत्व दे सकते हैं। परन्तु विपक्ष बिखरा हुआ है और कांग्रेस को छोड़कर किसी अन्य दल की अखिल भारतीय स्वीकार्यता नहीं है। कहने को वाम दल सीपीआई और सीपीआई एम राष्ट्रीय दल हैं और देश के अधिकांश जिलों में उनकी मौजूदगी है परन्तु सीट जितने लायक स्थिति अब सिर्फ केरल तक सिमट गई है। बाकी के क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी राज्यों तक ही सिमित है तुर्रा यह के हर दल का मुखिया प्रधानमंत्री ही बनना चाहता है।

दूसरी कमजोरी कांग्रेस सहित क्षेत्रीय दलों का वंशवादी नेतृत्व है।विपक्ष में वामदलों को छोड़कर सभी वंशवादी दल हैं या कहिए कि ये राजनीति की दुकान है। अधिकांश क्षेत्रीय दल के नेता प्रथमतया अपनी जाति के नेता हैं और किसी ने समाजवादी तो किसी ने समतावादी और किसी ने धर्मनिरपेक्षता का चोला भर पहन रखा है।यह बात इन राजनीतिक दलों की करनी से स्पष्ट हो जाता है कि इनकी मंशा येन केन प्रकारेण खुद के लिए और अपने कुनबे के लिए सत्ता का जुगाड़ करना है।

राहुल गांधी भी एक कुशल व योग्य नेता हैं और पहले से अधिक परिपक्व बनकर उभरे हैं परन्तु कांग्रेस के पुराने कुकर्म,परिवार के इर्दगिर्द जमा सत्ता के दलालों की चौकड़ी उनके सर्वमान्य नेता के रूप में उभरने में सबसे बड़ी बाधा है। कांग्रेस की दूसरी कमजोरी है उसकी नीतियां आज यह स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था की पक्षधर है या नरसिम्हा राव द्वारा अपनायी गयी नवउदारवादी को बढ़ाना चाहती है। कांग्रेस जब विपक्ष में होती है तो भाजपा की तरह जनवादी और समाजवादी हो जाती है पर सत्ता मिलते ही पूंजीवादी नवउदारवादी नीतियों को लागू करने लग जाती है।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण है पैसा,देश का पूंजीवादी वर्ग अभी पूरी तरह से भाजपा और नरेंद्र मोदी के प्रति समर्पित है। पूंजीवादी शक्तियां चाहे वो देशी हों या विदेशी वो यह जानती हैं कि भाजपा आर एस एस की राजनीतिक शाखा है और वो संघ की नीतियों को ही सरकार के माध्यम से लागू करती हैं। भाजपा की दक्षिणपंथी नीतियां देशी विदेशी पूंजीपतियों के हित को पूरा करने के लिये अनुकूल है और नरेंद्र मोदी उनकी पहली पसंद हैं। 2014 में भी नरेंद्र मोदी को पहले चुनाव अभियान समिति का संयोजक और बाद में प्रधानमंत्री के पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिये पूंजीपतियों की लॉबी ने संघ प्रमुख मोहन जी भागवत को मजबूर कर दिया था। पूंजीपति घरानों से मिले आर्थिक सहायता के बल पर नरेंद्र मोदी ने पहले से महंगे चुनाव प्रचार अभियान को और महंगा बना दिया। 2014 कि बाद से लगातार उद्योगपतियों से मिलने वाले चंदे में भाजपा की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है इस लिहाज से भी विपक्ष और विपक्षी नेता भाजपा और नरेंद्र मोदी के सामने कमजोर नजर आते हैं।
2014 में सत्ता में आने के बाद सरकार के महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर संघ के प्रशिक्षित नेताओं को ही बहाल किया गया है। बीते सात साल में सरकार की लगभग हर संवैधानिक संस्थाओं पर संघ प्रशिक्षित लोग बहाल किये गए हैं जो नरेंद्र मोदी की स्थिति को मजबूत बनाने में सहायक सिद्ध हुये हैं। संघ के प्रशिक्षित कैडर्स,भाजपा की आईटी सेल ,संवैधानिक संस्थाएं लगातार प्रचार माध्यमों के जरिये नरेंद्र मोदी को महानायक और विपक्षी नेताओं को पप्पू,देशविरोधी,चीन और पाकिस्तान समर्थक बताने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं।
इतना सब करने और इसे प्रबंधित करने वाले नरेंद्र मोदी को कमजोर कहना तो निरा मूर्खता ही कही जाएगी परन्तु सत्ता व सत्ताधारी दल के प्रचार तंत्र द्वारा विपक्षी नेताओं को अयोग्य एवं नरेंद्र मोदी के विकल्प नहीं होने की बात मान लेना भी मानसिक दिवालियापन ही कहलायेगा।

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